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अनु॑ कृ॒ष्णे वसु॑धिती ये॒माते॑ वि॒श्वपे॑शसा। वाय॒वा च॒न्द्रेण॒ रथे॑न या॒हि सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

anu kṛṣṇe vasudhitī yemāte viśvapeśasā | vāyav ā candreṇa rathena yāhi sutasya pītaye ||

पद पाठ

अनु॑। कृ॒ष्णे। इति॑। वसु॑धिती॒ इति॒ वसु॑ऽधिती। ये॒माते॒ इति॑। वि॒श्वऽपे॑शसा। वायो॒ इति॑। आ। च॒न्द्रेण॑। रथे॑न। या॒हि। सु॒तस्य॑। पी॒तये॑ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:48» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वायो) राजन् ! जैसे (विश्वपेशसा) सम्पूर्ण उत्तमरूप से (कृष्णे) खींची गई (वसुधिती) सम्पूर्ण लोकों की स्थिति जिनमें वे अन्तरिक्ष और पृथिवी (अनु, येमाते) नियम से चलती हैं, वैसे ही (सुतस्य) उत्पन्न किये गये पदार्थ की (पीतये) रक्षा के लिये (चन्द्रेण) रत्नों से जड़े हुए (रथेन) वाहन के द्वारा आप (आ, याहि) प्राप्त हूजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जैसे भूमि और सूर्य्य बहुत फल देनेवाले वर्त्तमान और नियम से चलते हैं, वैसे बहुत फलों के देनेवाले होकर विद्या और विनय के नियम से निरन्तर जाइये ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे वायो ! यथा विश्वपेशसा कृष्णे वसुधिती अनु येमाते तथैव सुतस्य पीतये चन्द्रेण रथेन त्वमा याहि ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अनु) (कृष्णे) कर्षिते (वसुधिती) वसूनां धितिर्ययोर्द्यावापृथिव्योस्ते (येमाते) नियमेन गच्छतः (विश्वपेशसा) सर्वस्वरूपेण (वायो) राजन् (आ) (चन्द्रेण) रत्नजटितेन (रथेन) (याहि) (सुतस्य) (पीतये) रक्षणाय ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! यथा भूमिसूर्य्यौ बहुफलदौ वर्त्तेते नियमेन गच्छतस्तथा बहुफलदो भूत्वा विद्याविनयनियमेन सततं गच्छेः ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा जशी भूमी व सूर्य पुष्कळ फलदाते असून नियमाने चालतात तसे पुष्कळ फलदायी बनून विद्या व विनयाच्या नियमाने वागा. ॥ ३ ॥